वामनगजा/बड़वानी(रेवा की पुकार) आज पूज्य विदक्षाश्री गाताजी ने छहढाला ग्रंथ के स्वाध्याय में धर्मरागा को संबोधित करते हुये बताया की गनुष्य को उसके कर्मों की राजा आवश्य ही मिलती है। जब कुछ प्राणी सत्ता, पद, प्रतिष्ठा में होता है तो उसे अपने दुष्कर्गों का ध्यान ही नहीं रहता, वह अपने ही गुरूर में गस्त रहता है। वह जो कर्म करता है उसमें सिर्फ अपना स्वार्थ ही निहित रखता है, जिससे उसे दुर्गतियों में भ्रमण करना पड़ता है। तिर्यच व नरको के पोर दुख सहन करने पड़ते है। माताजी ने नरको के दुखों का वर्णन करते हुये बताया की वहाँ प्राणी को अराह्य यातनाओं के साथ, भुख प्यास की वेदना को भी छेलना पडता है। पंडित टोडरमलजी कहते है की वहाँ मुख इतनी तीव्र होती है की तीन लोक का अनाज दे देवे तो वह भी खा जावे और मुख शांत ना हो और प्यारा गी ऐसी की रागुद्र का पुरा पानी पी जावे तो भी प्यास ना बुझे, पर आश्चर्य तो भी उस जीव कों न अनाज मिलता है ना पानी । गाताजी ने समझाते हुये कहा की गनुष्य बहुत थोडी उग्र लेकर आया है उसे सदैव अपनी अल्प आयु व अपनी मृत्यु का ध्यान रखना चाहिये और सदैव सतकर्म करना चाहिये । कर्ग एरो हो की अपने साथ दुसरों के दुख दर्द भी दुर किये जाये। अपने साथ दुसरे प्राणीयों के बारे में हित की बात सोची व की जावे. जिससे मनुष्य को आने वाली गति निश्चित ही अच्छी प्राप्त होती है व जगत के व स्वर्गों के सुखों को गोगता है।

पुज्य मुनिश्री ने श्रावकाचार ग्रंथ के स्वाध्याय में कहा की सच्चा श्रद्धान ही मनुष्य को परमात्मा की ओर ले जाती है। सच्ची श्रद्धा ही सच्ची उपासना है। बिना श्रद्धा के मुक्ति नहीं है। महामंत्र णमोंकार में सच्ची आस्था व श्रद्धान से अंजन चोर , अंजन से निरंजन बन गया था। णमोकार महामंत्र के प्रभाव से ही अनंतमति ने अपने शील की रक्षा की थी। धर्म को सच्चे रूप में अंगीकार करके मानव जीवन की शोभा बढा सकते है। गुनिश्री ने रागझाते हुये कहा कि जिरा प्रकार किसान का लक्ष्य अनाज उत्पन्न करना होता है। लेकिन भुसा किसान को मुफ्त में ही गिल जाता है।
